राज्यपाल: संविधान का संरक्षक या मात्र एक औपचारिक मुखिया?
- Ishrat Kashafi
- 8 मार्च
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वर्तमान संदर्भ
हाल ही में, अप्रत्याशित घटनाक्रम में, तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि ने राज्य विधानसभा से यह कहते हुए बहिर्गमन किया कि सत्र की शुरुआत में राष्ट्रगान न गाया जाना प्रोटोकॉल का उल्लंघन है। यह प्रकरण राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनाव को और बढ़ा रहा है तथा संवैधानिक मर्यादा और राजनीतिक रणनीति पर एक नई बहस को जन्म दे रहा है।
भारत में किसी राज्य का राज्यपाल एक स्वतंत्र संवैधानिक पद होता है और वह केंद्र सरकार के अधीन नहीं होता है। हालांकि, भारतीय संघवाद (federalism) में राज्यपाल की भूमिका पर लंबे समय से चर्चा होती रही है कि – क्या वे संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं या फिर केवल केंद्र सरकार के एक उपकरण के रूप में कार्य करते हैं।
राज्यपाल का पद
राज्यपाल किसी भारतीय राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और उसकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। हालांकि, राज्यपाल को व्यापक औपचारिक अधिकार प्राप्त होते हैं, लेकिन उनकी कार्यकारी शक्तियाँ मुख्य रूप से मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होती हैं।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 153 यह प्रावधान करता है कि प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा और यह भी संभव है कि एक ही व्यक्ति को एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाए।
राज्यपाल की प्रमुख जिम्मेदारियों में राज्य सरकार की स्थापना , विधेयकों को मंजूरी, राज्य विधानसभा का आह्वान और इसे भंग करना शामिल है। इसके अलावा, जब विधानसभा सत्र में न हो, तब राज्यपाल अध्यादेश जारी कर सकते हैं।
संविधान के भाग VI में वर्णित प्रावधानों के अनुसार, राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख और राज्य का सर्वोच्च कार्यकारी होता है। इसके अतिरिक्त, राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व भी करता है, जिससे यह पद द्वैतीय कार्यात्मक भूमिका निभाने वाला बन जाता है।
भारत में राज्यपाल की भूमिका
भारत में राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक प्रमुख माना जाता है, जो राष्ट्रपति का राज्य स्तर पर प्रतिनिधित्व करता है। हालांकि, यह भूमिका मुख्य रूप से औपचारिक होती है, लेकिन राज्यपाल के पास कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ होती हैं जो राज्य शासन को प्रभावी ढंग से चलाने में मदद करती हैं।
1. नियुक्ति एवं कार्यकाल
राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति की इच्छानुसार पद पर बना रहता है।
इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति किसी भी समय राज्यपाल को बर्खास्त कर सकते हैं।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्यपाल की भूमिका राजनीतिक रूप से निष्पक्ष बनी रहे, उन्हें केंद्र सरकार की शक्तियों का राज्य में प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है।
यद्यपि प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होता है, कुछ मामलों में एक राज्यपाल को एक से अधिक राज्यों का दायित्व सौंपा जाता है।
2. प्रमुख जिम्मेदारियाँ
राज्य सरकार की स्थापना : राज्यपाल का एक प्रमुख कर्तव्य चुनाव के बाद राज्य में सरकार गठन को सुनिश्चित करना है। राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है, जो बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है, तथा अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है, जो राज्य सरकार बनाते हैं।
विधानसभा का आह्वान और स्थगन : राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्य विधानसभा को बुला (summon) और स्थगित कर सकता है। यदि आवश्यक हो, तो राज्यपाल राज्य विधानसभा को भंग भी कर सकता है।
विधेयकों को स्वीकृति देना : जब कोई विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया जाता है, तो इसे राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल इसे मंजूरी दे सकते हैं, अस्वीकृत कर सकते हैं, या फिर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकते हैं।
3. राज्यपाल की शक्तियाँ
कार्यकारी शक्तियाँ : राज्यपाल को कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिसके तहत वे महाधिवक्ता, राज्य चुनाव आयुक्त, राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करते हैं। राज्यपाल राज्य न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करता है।
विधायी शक्तियाँ : राज्यपाल विधानमंडल को संबोधित करने, विधानसभा को भंग करने और नई सत्रों को बुलाने का अधिकार रखता है। राज्यपाल को कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोकने का अधिकार भी प्राप्त है।
दंड माफी और क्षमा अधिकार : राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह विशेष परिस्थितियों में दोषियों की सजा माफ (pardon) कर सके या कम कर सके। यह अधिकार राज्य प्रशासन की सलाह पर या विशेष मामलों में उपयोग किया जाता है।
4. विवेकाधीन शक्तियाँ
राष्ट्रपति शासन की सिफारिश : यदि राज्य में सरकार विफल हो जाए या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो, तो राज्यपाल केंद्र सरकार को अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लागू करने की सिफारिश कर सकता है।
सरकार गठन में भूमिका : यदि चुनावों के बाद किसी दल को पूर्ण बहुमत न मिले, तो राज्यपाल को यह निर्णय लेना होता है कि किस दल या गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाए।
राज्यपाल की द्वैतीय भूमिका
भारत में राज्यपाल की एक विशिष्ट द्वैतीय भूमिका होती है—एक ओर वह राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, और दूसरी ओर वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है। यह द्वैतीय भूमिका भारत के संघीय ढांचे के लिए आवश्यक है, क्योंकि यह राज्य और संघ के बीच सत्ता के संतुलन को बनाए रखता है।
1. राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में भूमिका
कार्यकारी शक्तियाँ : राज्यपाल, राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते, औपचारिक और प्रशासनिक कार्यों का निष्पादन करता है ताकि राज्य सरकार का सुचारू संचालन सुनिश्चित किया जा सके। राज्यपाल मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर कार्य करता है।
विधायी शक्तियाँ : राज्यपाल के कर्तव्यों में विधानसभा का आह्वान, स्थगन, विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करना, और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि राज्य सरकार संविधान के अनुरूप कार्य करे। राज्यपाल महाधिवक्ता और राज्य चुनाव आयुक्त जैसे आवश्यक राज्य अधिकारियों की नियुक्ति की निगरानी करता है।
2. केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भूमिका
राज्यपाल राज्य और केंद्र सरकार के बीच सेतु के रूप में कार्य करता है। यह भूमिका संघ सरकार को यह सुनिश्चित करने में सहायता करती है कि राज्य प्रशासन संवैधानिक जनादेशों का पालन करे। राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति को राज्य की महत्वपूर्ण परिस्थितियों जैसे कानून-व्यवस्था या राजनीतिक अस्थिरता के बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है।
यदि राज्य सरकार संवैधानिक मानकों के अनुसार कार्य नहीं करती है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति शासन - अनुच्छेद 356 लगाने का प्रस्ताव कर सकता है।
3. द्वैतीय भूमिका के सामंजस्य की आवश्यकता
राज्यपाल की द्वैतीय स्थिति को बनाए रखना अक्सर एक सूक्ष्म संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है:
राज्यपाल को राज्य सरकार की स्वायत्तता(autonomy) बनाए रखनी चाहिए, साथ ही एक निष्पक्ष संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिए।
दूसरी ओर, राज्यपाल को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य की शासन व्यवस्था संविधान के दायरे में काम करे और केंद्र सरकार की नीतियों और कानूनों का पालन करे।
द्वैध भूमिका में चुनौतियाँ
राजनीतिक निष्ठाएँ: राष्ट्रपति द्वारा केंद्र सरकार की सलाह पर राज्यपाल की नियुक्ति कभी-कभी उसकी निष्पक्षता को लेकर विवाद उत्पन्न करती है, विशेष रूप से जब राज्य सरकार के साथ मतभेद होते हैं।
पश्चिम बंगाल 2024: राज्यपाल सी. वी. आनंद बोस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच 2024 में मतभेद उभरे, जिसमें ममता बनर्जी ने राज्यपाल पर केंद्र सरकार की नीतियों के साथ संरेखण करने का आरोप लगाया। इस टकराव ने राज्यपालों की निष्पक्षता को लेकर चिंताएँ बढ़ा दीं, क्योंकि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और अक्सर केंद्र सरकार के प्रभाव में देखा जाता है।
सत्ता का दुरुपयोग: राज्यपाल समिति (1971) ने इस बात को रेखांकित किया कि राज्यपाल का कर्तव्य राजनीतिक स्थिति पर नियमित अपडेट प्रस्तुत करना और यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक अस्थिरता के कारण राज्य का प्रशासन विफल न हो। हालाँकि, केंद्र सरकार ने अक्सर अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने का दुरुपयोग किया है, जिसे राज्य में संवैधानिक विफलताओं के मामलों में ही लागू किया जाना चाहिए।
महाराष्ट्र (2019): एक राजनीतिक संकट के बाद, महाराष्ट्र में नवंबर 2019 में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन के पास बहुमत होने के बावजूद, राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के निर्णय ने राजनीतिक पक्षपात और सत्ता के दुरुपयोग के आरोपों को जन्म दिया, जिससे राज्य की संवैधानिक प्रक्रिया में केंद्र सरकार के प्रभाव को लेकर सवाल उठे।
संघीय तनाव: राज्यपाल की द्वैध भूमिका अक्सर राज्य और केंद्र सरकार के बीच टकराव उत्पन्न करती है, विशेषकर जब दोनों स्तरों पर शासन करने वाली पार्टियों की विचारधारा भिन्न होती है।
तमिलनाडु (2021): राज्यपाल आर. एन. रवि और मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन के बीच नीट (NEET) और राज्य की स्वायत्तता जैसे मुद्दों पर मतभेद उभरे, जिसमें राज्यपाल पर केंद्र सरकार की नीतियों के साथ संरेखित होने का आरोप लगाया गया।
विवेकाधीन अधिकारों का दुरुपयोग: चुनाव के बाद सबसे बड़े दल या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति को अक्सर एक विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है।
गोवा (2017), मेघालय (2018), मणिपुर (2017) और कर्नाटक (2018) के उदाहरण यह दर्शाते हैं कि इस पद के कामकाज को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए उचित संतुलन और नियंत्रण स्थापित करने की आवश्यकता है।
सुधार की दिशा
राज्यपाल का विवेकपूर्ण और निष्पक्ष कार्य: लोकतांत्रिक शासन के प्रभावी संचालन के लिए यह आवश्यक है कि राज्यपाल अपने विवेक और निर्णय को निष्पक्षता, पारदर्शिता और दक्षता के साथ प्रयोग करें। राज्यपाल को लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करते हुए और निर्णय-निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करते हुए कार्य करना चाहिए।
संतुलन और नियंत्रण की आवश्यकता: राज्यपाल पद के संचालन को सुचारू और संवैधानिक रूप से प्रभावी बनाने के लिए स्पष्ट संतुलन और नियंत्रण तंत्र की आवश्यकता है। इससे जवाबदेही सुनिश्चित होगी और यह गारंटी मिलेगी कि राज्यपाल का पद अपने संवैधानिक दायित्वों का सही ढंग से निर्वहन कर सके।
स्पष्ट नियुक्ति प्रक्रिया और स्थायी कार्यकाल: राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए और उनके कार्यकाल को एक निर्धारित अवधि का होना चाहिए। यह उन्हें केंद्र सरकार के अत्यधिक प्रभाव से बचाएगा और उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने की स्थिरता प्रदान करेगा।
कार्य करने की स्वायत्तता सुनिश्चित करना: राज्यपाल के कार्यालय को आवश्यक स्वायत्तता दी जानी चाहिए ताकि वे केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त रहकर स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें। इससे अनावश्यक "निर्देशों" की बाधा समाप्त होगी और राज्यपाल अपनी जिम्मेदारियों का निष्पक्षतापूर्वक निर्वहन कर सकेंगे।
सुदृढ़ सुधारों की आवश्यकता: सरकार को सर्कारिया आयोग (Sarkaria Commission) और पुन्छी (Punchhi Commission) आयोग की सिफारिशों को उनके वास्तविक रूप में लागू करना चाहिए। इन आयोगों ने राज्यपाल की भूमिका को अधिक प्रभावी बनाने और केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण सुधार प्रस्तावित किए हैं।
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